मां दंतेश्वरी शक्तिपीठ में चैत्र-क्वांर नवरात्रि के अलावा फागुन मड़ई के नाम से मनाई जाती है तीसरी नवरात्रि
September 30, 2022प्राचीन बस्तर तंत्र साधना का केंद्र रहा, मां दंतेश्वरी शक्तिपीठ में नरबलि की भी प्रथा थी
दंतेवाड़ा, 30 सितम्बर । जिले के दंतेश्वरी शक्तिपीठ जहां माता सती का दांत गिरा था, इसलिए यह पावन स्थल दंतेश्वरी शक्तिपीठ कहलाया। देवी मंदिरों में आमतौर पर चैत्र और क्वांर महीने में नवरात्रि आयोजित की जाती है, किंतु दंतेश्वरी शक्तिपीठ में फागुन मड़ई के नाम से तीसरी नवरात्रि होती है। इसे आखेट नवरात्रि कहा जाता है। देवी के विभिन्न नौ रूपों के सम्मान में नौ दिन मांईजी की डोली निकाली जाती है। यह तीसरी नवरात्रि फागुन मड़ई के नाम के विख्यात है।
दंतेश्वरी धाम देश का एक मात्र ऐसा शक्तिपीठ है, जो ड़ंकनी-शंखनी नामक नदियों के संगम पर है और मंदिर के ठीक सामने गरूड़ स्तंभ है। यह शक्तिपीठ हजारों वर्ष पुराना होने से केंद्रीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा संरक्षित है। जगदलपुर में आयोजित विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरा में मां दंतेश्वरी और मणिकेश्वरी देवी ही मुख्य रूप में पूजा होती हैं। बस्तर दशहरा में विशालकाय दुमंजिला काष्ठ रथ में मां दंतेश्वरी के छत्र को रथारूणकर परिक्रमा किये जाने की परंपरा का इन दिनों निर्वहन किया जा रहा है, एक सप्ताह तक दुमंजिला रथ परिक्रमा बस्तर दशहरा का मुख्य आकर्षण होता है।
इस शक्तिपीठ में प्रतिष्ठित मां दंतेश्वरी की मूर्ति जिस शिला में उकेरी गई है। उसके ठीक ऊपर नरसिंह भगवान की आकृति है, इसलिए शक्तिपीठ के ठीक सामने गरुड़ स्तंभ स्थापित किया गया है। भगवान नरसिंह विष्णु के अवतार हैं इसलिए प्रति वर्ष दीपावली के दिन मां दंतेश्वरी की माता लक्ष्मी के रूप में विशेष पूजा होती है। धार्मिक मान्यता के अनुसार शक्तिपीठों में माता दर्शन पश्चात भैरव दर्शन अनिवार्य माना गया है। मां दंतेश्वरी शक्तिपीठ प्रक्षेत्र को आठ भैरव भाइयों का निवास स्थल माना जाता है। इनके नाम लिंगा भैरव, वन भैरव, जटा भैरव, चीना भैरव, मटकुल भैरव, टुंडाल भैरव, पाट भैरव और घाट भैरव है। दंतेश्वरी शक्तिपीठ में तीन शिलालेख और 56 प्रतिमाएं मौजूद हैं। एक शिलालेख में इस बात का उल्लेख है कि वारंगल से आए पांडव अर्जुन कुल का राजा दंतेवाड़ा पहुंचकर दंतेश्वरी मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया था।
दंतेश्वरी शक्तिपीठ के प्रधान पुजारी हरेंद्रनाथ जिया के अनुसार प्राचीन बस्तर तंत्र साधना का एक भयानक और गुमनाम केंद्र रहा है। शक्तिपीठ में नरबलि की प्रथा थी। तत्कालीन ब्रिटिश सुपरिंटेंडेंट कैप्टन गहविन आर. क्राफर्ड की पहल पर यहां नरबलि की प्रथा बंद हो पाई। शक्तिपीठ में नरबलि का अंतिम प्रकरण 23 सितंबर 1825 को सामने आया था। तत्कालीन बस्तर महाराजा महिपाल देव दंतेवाड़ा पहुंचे थे। रात 12 बजे चालुक्य नरेश की उपस्थिति में 15 मनुष्यों की नरबलि दी गई थी, वही वधिकों ने 10 भैसे और 600 बकरे भी काटे थे। इस जघन्य अपराध के लिए महिपाल देव को भोसला प्रशासन ने दंडित किया था। सतनाम रामायण में भी इस बात का उल्लेख है कि धर्म प्रचार के लिए गुरु घासीदास बस्तर पहुंचे थे। उन्होंने दंतेवाड़ा पहुंचकर पुजारियों से आग्रह किया था कि देवी के सामने बलि न दी जाए। तब से देवी के सामने बलि देने की प्रथा यहां बंद है।