अन्तर्कलह से जूझ रही समाजवादी पार्टी
April 8, 2024उत्तर प्रदेश की मुख्य विपक्षी पार्टी सपा इन दिनों अन्तर्कलह से जूझ रही है। विधानसभा चुनाव 2017 के मुकाबले 2022 के विधानसभा चुनाव में सपा की ताकत तो जरूर बढ़ी लेकिन लोकसभा चुनाव आते—आते पार्टी के कई बड़े नेता व विधायक सपा का साथ छोड़ गये। पीडीए को मजबूत करने का दंभ भरने वाले स्वामी प्रसाद मौर्य ने भी सपा से अपना पिंड छुड़ा लिया है। यही नहीं सपा के सहयोगी दल भी जिनमें सुभासपा, अपना दल कमेरावादी व महानदल भी एक-एक कर सपा से सरक गये। रही सही कसर लोकसभा चुनाव से ऐन पहले रालोद ने भाजपा गठबंधन का हिस्सा बनकर पूरी कर दी। ऐसे कठिन दौर में सपा के टिकट वितरण की प्रक्रिया ने आम पार्टी कार्यकर्ताओं को असमंजस में डाल दिया है।
इस बार टिकट अदला बदली के मामले में सपा ने बसपा को भी पीछे छोड़ दिया है। सपा के इतिहास में शायद यह पहला अवसर होगा जब इतने बड़े पैमाने पर सपा ने उम्मीदवारों के नाम घोषित करने के बाद टिकट बदला हो। इसे पार्टी की अंदरूनी कलह कहें यह मजबूरी इसका खामियाजा तो सपा को लोकसभा चुनाव में उठाना ही पड़ेगा। क्योकि जिसका टिकट घोषित होने के बाद पार्टी ने बदला वह प्रत्याशी भले ही विरोध न करे लेकिन उसके सजातीय वोटर जरूर विरोध में वोट करेंगे। लेकिन सीधी सी यह बात सपा मुखिया अखिलेश यादव को क्यों नहीं समझ में आती। राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो अगर सपा ने टिकटों की अदला बदली न की होती और दमदारी से चुनाव लड़ती तो यूपी की दो दर्जन से अधिक सीटों पर सपा सीधे मुकाबले में रहती। बदले परिदृश्य में सपा लड़ाई से बाहर होती दिखाई दे रही है। जिस तरह से सपा ने प्रथम व दूसरे चरण के प्रत्याशियों के टिकट नामांकन के अंतिम समय में काटे हैं उससे तो यही प्रतीत होता है कि बाकी चरणों में भी सपा कई लोकसभाओं के टिकट में फेरबदल अवश्य करेगी। सपा नेतृत्व के इस कदम से प्रदेश की अन्य सीटों के घोषित पार्टी प्रत्याशी संशय में हैं। इस वजह से वह ठीक से चुनाव प्रचार भी नहीं कर पा रहे हैं। उन्हें चिंता सता रही है कि कहीं अंतिम समय में पार्टी हमारा टिकट न काट दे। इसलिए वह क्षेत्र में जनसम्पर्क न कर लखनऊ का चक्कर लगा रहे हैं।
सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने फिलहाल लोकसभा चुनाव लड़ने का फैसला लगभग कर ही लिया है। वहीं सपा के वरिष्ठ नेता शिवपाल यादव भी पुत्रमोह में स्वयं लोकसभा चुनाव न लड़कर बेटे आदित्य यादव को लोकसभा का चुनाव लड़ाना चाहते हैं। सपा के दोनों प्रमुख नेताओं अखिलेश व शिवपाल यादव के लोकसभा चुनाव न लड़ने से भी कार्यकर्ताओं में गलत संदेश जाना तय है। क्योंकि इससे तो यही संदेश जायेगा कि मोदी लहर में हार की डर की वजह से यह लोग चुनाव लड़ने से कतरा रहे हैं। वहीं कभी सपा के नीति नियंता रहे आजम खाँ व अखिलेश यादव के बीच मनमुटाव भी खुलकर सामने आ गये है। मनमुटाव दूर करने के लिए अखिलेश यादव आजम खां से मिलने सीतापुर जेल जरूर गये लेकिन बात बनी नहीं।
जिस तरह आजम खां के दबाव में एसटी हसन का टिकट काटकर रूचिवीरा को प्रत्याशी बनाया गया इससे सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि सपा में सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है। दूसरे चरण का नामांकन पूरा हो गया है। भारतीय जनता पार्टी ने धुंआंधार आक्रामक प्रचार अभियान भी शुरू कर दिया है। वहीं सपा अभी टिकट वितरण में ही उलझी है। ओमप्रकाश राजभर, स्वामी प्रसाद मौर्य,चन्द्रशेखर आजाद व पल्लवी पटेल ने सपा से किनारा कर लिया है। ऐसे में उत्तर प्रदेश में जनाधार विहीन हो चुकी कांग्रेस से कितना फायदा होगा यह तो आने वाला समय ही बतायेगा लेकिन लोकसभा चुनाव में सपा के सफा होने के स्पष्ट संकेत अवश्य दिख रहे हैं। क्योंकि 2017 के विधानसभा चुनाव में सपा व कांग्रेस के गठबंधन को जनता नकार चुकी है। इस बार फिर से वही गठबंधन जनता के सामने है। चुनाव से पहले पस्त हो चुका सपा कांग्रेस का गठबंधन यूपी में भाजपा के विजय रथ को रोक पायेगा ऐसा लगता नहीं है।
सपा मुखिया की कार्यसंस्कृति को देखकर यही लगता है कि अखिलेश यादव अभी भी अपने को मुख्यमंत्री से कमतर नहीं आंकते हैं। पार्टी के जमीनी कार्यकताओं व नेताओं से न तो वह फीडबैक बैक लेते हैं और न ही वह उन्हें तवज्जो देते हैं। यही कारण है कि मुलायम सिंह यादव के खासमकास माने जाने वाले नेता आज मजबूरी में सपा को अलविदा कह चुके हैं। पार्टी के उम्रदराज नेताओं से सलाह मशविरा करना भी अखिलेश अपनी तौहीन समझते हैं। एटा, इटावा व मैनपुरी के आसपास के ही जिलों की ही अगर बात करें तो पूर्व मंत्री नरेन्द्र सिंह यादव, पूर्व मंत्री अवधपाल यादव,पूर्व सांसद देवेन्द्र सिंह यादव, एमएलसी आशु यादव व पूर्व विधायक शिशुपाल यादव समेत दर्जनभर नेता सपा का हाथ छोड़ चुके हैं। अखिलेश यादव जाति आधारित जनगणना का मुद्दा भी जोर शोर से उठाये लेकिन उस पर वह अडिग नहीं रह पाये। यही हाल पीडीए का भी है। स्वामी प्रसाद मौर्य, पल्लवी पटेल और चन्द्रशेखर ने पीडीए की हवा निकाल दी है। अखिलेश बात पीडीए की करते हैं लेकिन वह पीडीए को संगठित करना तो दूर बल्कि पीडीए की राजनीति करने वाले नेताओं ने भी उनसे दूरी बना ली।
सुभासपा और रालोद के राजग का हिस्सा बनने से पहले से मजबूत भाजपा अब और सशक्त हो चुकी है। अयोध्या में सपा ने इस बार पीडीए फार्मूले के तहत पूर्व मंत्री अवधेश प्रसाद को टिकट दिया। लेकिन पूर्व सांसद मित्रसेन यादव के पुत्र आईपीएस अधिकारी रहे अरविन्द सेन यादव ने सीपीआई के टिकट से मैदान में आकर सपा प्रत्याशी की राह मुश्किल कर दी है। इससे यादव मतों में बिखराव होना तय है। ऐसे में यदि अवधेश प्रसाद का टिकट बदलते हैं तो एससी वोटर सपा से नाराज होंगे ही। कमोबेश यही स्थिति प्रदेश की अन्य कई सीटों की है।
पहले चरण के ही सात प्रत्याशियों के टिकट बदले जा चुके हैं। इसमें गौतमबुद्धनगर, मिश्रिख और मेरठ में तो कई बार परिवर्तन किये गये। पहली सूची में ही बदायूं से धर्मेन्द्र यादव को टिकट दिया गया था। गत 20 फरवरी को धर्मेन्द्र यादव के स्थान पर शिवपाल यादव को मैदान में उतार दिया। मुरादाबाद में अंतिम समय में मौजूदा सांसद डा. एसटी हसन को मैदान में उतारा और उन्होंने अपना पर्चा भी दाखिल कर दिया। नामांकन के अंतिम दिन डा. एसटी हसन के बजाय रूचि वीरा को सिंबल दे दिया गया।
मेरठ हापुड़ संसदीय क्षेत्र से सपा ने पहले अधिवक्ता भानु प्रताप सिंह को अपना प्रत्याशी घोषित किया। एक अप्रैल को उनका टिकट बदलकर सरधना से विधायक अतुल प्रधान को टिकट दे दिया। अतुल प्रधान ने जिस दिन नामांकन दाखिल किया उसी दिन रात में उनका टिकट काटे जाने की सूचना आ गयी। इसके बाद पार्टी ने पूर्व विधायक योगेश वर्मा की पत्नी सुनीता वर्मा को टिकट दे दिया। इसी तरह गौतमबुद्धनगर में पहले डा. महेन्द्र नागर को प्रत्याशी घोषित किया गया। इसके बाद इस सीट पर राहुल अवाना को उम्मीदवार बनोबेया गया। बाद में पुन: डा. महेन्द्र नागर को प्रत्याशी घोषित किया गया। वहीं मिश्रिख में भी पहले रामपाल राजवंशी, फिर उनके बेटे मनोज कुमार राजवंशी और उसके बाद उनकी बहू संगीता राजवंशी को प्रत्याशी बनाया गया। कमोबेश यही स्थिति बागपत में भी आई जहां पहले सपा के पूर्व जिलाध्यक्ष मनोज चौधरी को उतारा गया। नामांकन के अंतिम दिन टिकट बदलकर पूर्व विधायक अमरपाल शर्मा को दिया गया। इसी तरह बिजनौर में भी पूर्व सांसद यशवीर सिंह का टिकट काटकर दीपक सैनी को दिया गया। इसके अलावा कई अन्य सीटों पर भी प्रत्याशी बदलने की मांग को लेकर सपा कार्यकर्ता बगावत पर उतर आये हैं। इससे तो यही सिद्ध होता है कि सपा अध्यक्ष ने प्रत्याशी चयन में स्थानीय नेताओं से सलाह मशविरा नहीं किया। इस उधेड़बुन में सपा कार्यकर्ता भी उलझे हैं। आठ बार के विधायक व दो बार सांसद रहे कुंवर रेवती रमण सिंह भी सपा छोड़कर कांग्रेेलस का हाथ थाम चुके हैं। वहीं सपा छोड़कर जाने वालों का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है।