हवा की गुणवत्ता सुधारने को जरूरी सबकी भागीदारी
January 27, 2024समूची दुनिया प्रदूषण की भीषण चपेट में है। दुनिया के कई शहरों और खासकर दक्षिण एशिया के 18 शहरों में वायु प्रदूषण की भयावह स्थिति ने सबको हैरत में डाल दिया है। दुनिया में खराब वायु गुणवत्ता के कारण हर साल तकरीबन 60 लाख से कहीं ज्यादा लोग मौत के मुंह में चले जाते हैं। वहीं वायु प्रदूषण से कई जानलेवा बीमारियां पैदा होती हैं। यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन के वैज्ञानिकों ने खुलासा किया है कि जहां तक दक्षिण एशियाई देशों का सवाल है, यहां के विकसित शहरों में वायु प्रदूषण से होने वाली मौतों का आंकड़ा डेढ़ लाख को पार कर गया है। आशंका व्यक्त की है कि एशिया के उष्णकटिबंधीय क्षेत्र के 18 शहरों में रहने वाले लाखों लोगों की मौत वायु प्रदूषण के चलते समय से पहले हो सकती है।
शोधकर्ता वैज्ञानिकों ने नासा से जुटाये गये आंकड़ों के आधार पर प्रदूषण संबंधी मौतों के लिए नाइट्रोजन डाइआक्साइड, अमोनिया, कार्बन मोनोक्साइड जैसे प्रदूषकों के अलावा हानिकारक सूक्ष्म कणों पीएम 2.5 को जिम्मेदार बताया है। यदि आने वाले छह दशकों में वायु प्रदूषण की यही स्थिति बरकरार रही तो लगभग 10 करोड़ से ज्यादा लोग समय पूर्व अपनी जान गंवा देंगे। गौरतलब है कि पीएम 2.5 के लम्बे समय तक संपर्क में रहने के कारण अकेले 2005 में दक्षिण एशियाई शहरों में डेढ़ लाख लोग और दक्षिण पूर्व एशियाई शहरों में तकरीबन 53 हजार मौतें हुई थीं। भारत को वायु प्रदूषण से हर साल 114 खरब रुपये का नुकसान उठाना पड़ रहा है।
जगजाहिर है कि यदि आने वाले समय में वायु की गुणवत्ता सुधारने के शीघ्र समुचित प्रयास नहीं किये गये तो मानव जीवन संकट में पड़ जायेगा।
बीते साल स्विट्ज़रलैंड की संस्था आईक्यू एयर ने अपनी वर्ल्ड एयर क्वालिटी रिपोर्ट में भारत को 2022 में दुनिया का सबसे प्रदूषित देश बताया था। दुनिया के सबसे प्रदूषित 50 शहरों में उस समय 39 शहर भारत के थे। यदि हम अंतर्राष्ट्रीय मानकों या दिशा-निर्देशों के हिसाब से देखें तो पाते हैं कि वाकई हमारे शहरों में सीमा से बहुत ज्यादा प्रदूषण है। शहर तो शहर, अब गांव भी इससे अछूते नहीं। अक्सर प्रदूषण कम करने की बाबत शहरों में ही प्रयास किये जाते हैं। जो योजनाएं बनती हैं वे भी शहर केन्द्रित ही होती हैं।
वायु प्रदूषण जहां बच्चों के मस्तिष्क के विकास के लिए भीषण खतरा बन गया है, वहीं बच्चों में तेजी से बढ़ रहे अस्थमा का भी कारण बन रहा है। शोध में पाया गया कि हवा में मौजूद धुएं-धूल के बारीक कण बच्चों के लिए खतरनाक साबित हो रहे हैं। इसका सबसे ज्यादा असर उन बच्चों में पाया जाता है जो कम विकसित शहरी इलाकों या पिछड़े इलाकों में रहते हैं। ईस्ट एंजीलिया यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर जान स्पेंसर द्वारा किये अक्तूबर, 2017 से जून, 2019 के बीच 215 बच्चों के विज़न, स्मृति, विजुअल प्रक्रिया के विश्लेषण से खुलासा हुआ कि बच्चे में संज्ञानात्मक समस्या का संबंध खराब वायु गुणवत्ता से है। स्पेंसर के अनुसार, हवा में मौजूद हानिकारक बारीक कण मस्तिष्क में प्रवेश कर उसे नुकसान पहुंचाते हैं। खराब वायु गुणवत्ता के चलते होने वाली संज्ञानात्मक समस्याएं दो साल तक के बच्चों के लिए जोखिमभरी होती हैं।
दरअसल, प्रदूषण को कम करने की दिशा में जो भी प्रयास होते हैं, वह पीएम पार्टीकल्स पर ही केन्द्रित होते हैं। ओजोन, नाइट्रोजन व अन्य प्रदूषक तत्व शामिल नहीं होते जबकि इनको भी शामिल किया जाना चाहिए। लेकिन योजनाएं बनाकर और निर्देश देकर कार्य की इतिश्री कर दी जाती है। सर्वेक्षण में कितना काम कहां हुआ, प्रदूषण घटाने में किसकी भूमिका क्या और कितनी रही और उसमें कामयाबी और नाकामी का प्रतिशत कितना रहा, इसका भी आकलन होना चाहिए। सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण बात यह है कि इस पूरी प्रक्रिया में शोधकर्ताओं का भी सहयोग लेना चाहिए और प्रदूषण नियंत्रण का दायित्व समन्वित रूप से एक ही विभाग के अंतर्गत होना चाहिए। यह जान लेना कि प्रदूषण सामान्य नहीं, जानलेवा है। क्योंकि हम जहरीली हवा में सांस लेने को विवश हैं।
यह कहना गलत है कि प्रदूषण नियंत्रण के देश में उपाय नहीं हो रहे। लेकिन हकीकत में जब-जब प्रदूषण की अधिकता होती है, तब रोकथाम के सारे के सारे प्रयास बड़े शहरों में ही देखे जाते हैं। हकीकत यह भी है कि देश में छोटे-बड़े तकरीबन चार हजार से ज्यादा शहर हैं लेकिन दुखदायी यह है कि उनमें से ज्यादातर शहरों में प्रदूषण की निगरानी की व्यवस्था ही नहीं है। देश की राजधानी दिल्ली के लोग तो जहरीली हवा में सांस लेने को मजबूर हैं। देश की राजधानी का पीएम 2.5 का स्तर सुरक्षित सीमा से लगभग 20 गुणा से भी ज्यादा है। जहां तक राजनीतिक दलों की बात है, पर्यावरण की बात राजनीतिक दलों के लिए महत्वपूर्ण नहीं है क्योंकि उनके लिए यह चुनावी मुद्दा नहीं होता। यह कहना ठीक नहीं कि लोग जागरूक नहीं हुए हैं। वे जागरूक भी हुए हैं, पर इसमें जनभागीदारी और जागरूकता आवश्यक तत्व हैं। इसके बिना कामयाबी की आशा बेमानी है। यदि नेशनल क्लीन एयर प्रोग्राम को सफल बनाना है तो केन्द्र सरकार को इसके लिए राज्य सरकारों पर दबाव भी बनाना पड़ेगा कि वे अपने नगर निकायों को वायु प्रदूषण से निपटने में सक्षम बनायें। नगर निकायों की सक्रिय भागीदारी वायु प्रदूषण से मुक्ति की पहली गारंटी है। इसमें दो राय नहीं।