मध्यप्रदेश में लाडली बहनाएं बनी तारणहार
November 19, 2023मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव में मतदान के बढ़े प्रतिशत ने इस बार अब तक के सारे मापदण्ड ध्वस्त कर दिए हैं। प्रदेश चुनाव आयोग के अंतिम आंकड़े के अनुसार 2023 में मतदान का प्रतिशत 77.15 रहा है, जो पिछली बार की तुलना में 1.52 प्रतिषत अधिक है। यह मतदान किसके पक्ष में जाएगा, एकाएक यह कहना तो कठिन है, क्योंकि भाजपा जहां ‘लाडली बहना योजना‘ के अंतर्गत 1 करोड़ 31 लाख महिलाओं को 1250 रुपए का प्रति माह लाभ देना अपने पक्ष में मान रही है, वहीं कांग्रेस ‘नारी सम्मान निधि‘ के रूप में 1500 रुपए देने की घोषणा को जीत का मजबूत आधार मान रही है। साफ है, दोनों ही बड़े दलों के केंद्र में महिलाएं हैं। इसी नजरिए से रसोई गैस सिलेंडर भाजपा ने 500 रुपए में तो कांग्रेस ने 450 रुपए में देने का वादा किया है। यानी जीत का दारोमदार मुद्दों से कहीं ज्यादा मुफ्त की रेवड़ियों पर आ टिका है।
2018 के विधानसभा चुनाव की तुलना में 1.52 प्रतिशत मतदान अधिक हुआ है। इसे लाडली बहनों का करिश्मा बताया जा रहा है। शहर से कहीं ज्यादा ग्रामीण मतदाता की मतदान के प्रति जागरूकता दिखी है। इसीलिए ग्रामों में महिलाओं की लंबी-लंबी कतारें देखने में आईं। साफ है, जिस उत्साह से मतदाता घर से बाहर निकला उससे उसका लोकतंत्र के प्रति दायित्व बोध झलकता है।
जबकि भोपाल जैसे नगर में कुलीन बस्तियों के मतदाताओं ने उदासीनता दिखाई। इस बढ़े मतदान को जहां भाजपा अपने पक्ष में मान रही हैं, वहीं कांग्रेस अपने पक्ष में ? क्योंकि यह धारणा बनी हुई है कि बढ़ा मत-प्रतिशत सत्ता के विरोध में जाता है, लेकिन मध्यप्रदेश के परिप्रेक्ष्य में यह दलील खरी नहीं उतरी है। 2003 में हुए चुनाव में 67.25, 2008 में 69.78, 2013 में 72.13 और 2018 में 75.63 प्रतिशत मतदान हुआ था। 2018 में मतदान के प्रतिशत ने किसी भी दल को स्पश्ट बहुमत नहीं दिया था। कांग्रेस जहां 114 सीटों पर सिमट गई थीं, वहीं भाजपा को 109 सीटों पर संतोश करना पड़ा था। आखिरकार कांग्रेस के कमलनाथ सपा और बसपा के सहयोग से मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान से सत्ता हासिल करने में सफल हो गए थे।
साफ है, 2018 के बढ़े मतदान को छोड़कर अन्य मतदान भाजपा के पक्ष में गए थे। यह अलग बात है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया के असंतोश ने कमलनाथ सरकार को अपदस्थ कर शिवराज की सरकार की पुनर्बहाली कर दी थी। अब चुनावी विश्लेषक मध्यप्रदेश में सत्ता बनाने व बिगाड़ने के खेल में महिलाओं की भागीदारी को सुनिश्चित करने में लगे हैं। प्रदेष में कुल 5.60 करोड़ मतदाता हैं।
इनमें से 2.72 करोड़ महिला मतदाता हैं। इस चुनाव में 1.93 करोड़ महिलाओं ने मतदान किया है। 31 लाख महिला मतदाता अक्टूबर 2023 में बढ़ी हैं। इनमें कुछ वे लाडली लक्ष्मियां भी हैं, जिन्हें शिवराज सिंह के पहले मुख्यमंत्रित्व कार्यकाल में ‘लाडली लक्ष्मी योजना‘ के अंतर्गत जन्म के साथ लखपति बना दिया गया था। लाडली बहना इसलिए भाजपा के पक्ष में जाति दिख रही है, क्योंकि उसे करीब पांच माह से 1250 रुपए प्रतिमाह मिल रहे हैं। चुनाव प्रक्रिया के दौरान 7 नवंबर को भी यह राशि 1 करोड़ 31 लाख महिलाओं के खाते में डाल दी गई थी। इसके दो दिन बाद इस निर्वाचन यज्ञ में केंद्र सरकार द्वारा दी जाने वाली ‘किसान सम्मान निधि‘ की आहूति भी दे दी गई।
मसलन स्त्री और पुरुष दोनों ही मतदाताओं को लुभाने का काम भाजपा सरकारों ने मतदान के 10-12 दिन पहले कर दिया था। मतदान के प्रति जो उत्साह दिखा, इसमें इस धनराशि का भी अप्रत्यक्ष योगदान तो रहा ही है, महिलाओं को भैया षिवराज से यह उम्मीद भी बंधी है कि उनकी जब सत्ता में वापिसी होगी, तभी यह राषि बढ़कर शिवराज की घोषणा के अनुसार 3000 रुपए तक पहुंच पाएगी।
अन्यथा इसे बट्रटे खाते में भी डाला जा सकता है ? मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की उदार कार्यशैली का परिणाम कहा जाए या उनकी सरकार के विरुद्ध एंटी- इन्कंबेंसी, इसकी वास्तविकता तो 03 दिसंबर को चुनाव नतीजे सामने आने के बाद पता लगेगी। बावजूद मतों में जो उछाल देखने में आया है, वह आखिर में सरकार के प्रति उम्मीद का पर्याय लग रहा है, क्योंकि चुनाव विश्लेषक भले ही कह रहे हों कि मतदाता मौन हैं, लेकिन ओपोनियन पोल में जिस तरह से सभी वर्ग की महिलाएं फूल पर वोट देने के लिए मुखर व उत्सुक दिखाई दी हैं, उससे मामा की वापसी संभव लग रही है।
2003 में जब प्रदेश में दिग्विजय सिंह की कांग्रेस सरकार वजूद में थी, तब भी कुछ इसी तरह का उछाल दिखा था। अलबत्ता भाजपा के प्रति वे मतदाता भी मुखर विरोध कर रहे हैं, जो पुरानी पेंशन योजना की पुनर्बहाली की मांग कर रहे हैं। कांग्रेस ने मतदाताओं के बढ़े वर्ग को लुभाने की दृष्टि से नारी सम्मान निधि और सस्ती रसोई गैस देने की बात तो की ही है, साथ ही पुरानी पेंशन की बहाली और 2 लाख रुपए तक के किसान कर्ज माफी की भी घोशणा अपने वचन-पत्र में की है। लेकिन इनका असर लाडली बहना योजना की तुलना में कम दिखाई दे रहा है। हालांकि इस बार भी मतदान पर्ची की जो सुविधा निर्वाचन आयोग द्वारा प्रत्येक मतदाता को दी गई है, वह भी मत-प्रतिशत बढ़ने का कारण रही है। वीवी पेट की सुविधा से मतदान में पारदर्शिता उजागर होने के साथ, ईवीएम से वोट डालने के प्रति विश्वास भी कायम हुआ है। इसलिए परिणाम जो भी निकलें, ईवीएम पर संदेह करना अब अपवाद के रूप में देखा जा रहा है।
अब तक सत्तारूढ़ दल के खिलाफ व्यक्गित असंतुश्टि और व्यापक असंतोष के रूप में बढ़़ा मत-प्रतिशत देखा जाता रहा है, लेकिन मतदाता में आई जागरूकता ने परिदृश्य बदला है, इसलिए इसे केवल नकारात्मकता की तराजू पर तौलना राजनीतिक प्रेक्षकों की भूल है। इसे सकारात्मक दृष्टि से भी देखने की जरूरत है। क्योंकि मतदान के जरिए सत्ता परिवर्तन का जो उपाय मतदाता की मुट्ठी में है, वह लोकतांत्रिक संवैधानिक व्यवस्था का ही परिणाम है।
बावजूद मत प्रतिशत का सबसे अह्म, सुखद व सकारात्मक पहलू है कि यह अनिवार्य मतदान की जरूरत की पूर्ति कर रहा है। हालांकि फिलहाल हमारे देश में अनिवार्य मतदान की संवैधानिक बाध्यता नहीं है। मेरी सोच के मुताबिक ज्यादा मतदान की जो बड़ी खूबी है, वह है कि अब अल्पसंख्यक व जातीय समूहों को वोट बैंक की लाचारगी से छुटकारा मिल रहा है। इससे कालांतर में राजनीतिक दलों को भी तुष्टिकरण की मजबूरी से मुक्ति मिलेगी। क्योंकि जब मतदान प्रतिशत 75 से 85 होने लगता हैं, तो किसी धर्म, जाति, भाषा या क्षेत्र विशेष से जुड़े मतदाताओं की अहमियत कम हो जाती है। नतीजतन उनका संख्याबल जीत या हार की गारंटी नहीं रह जाता।
लिहाजा सांप्रदायिक व जातीय आधार पर ध्रुवीकरण की राजनीति नगण्य हो जाती है। कालांतर में यह स्थिति मतदाता को धन व शराब के लालच से भी मुक्त कर देगी। क्योंकि कोई प्रत्याशी छोटे मतदाता समूहों को तो लालच का चुग्गा डालकर बरगला सकता है, लेकिन संख्यात्मक दृष्टि से बड़े समूहों को लुभाना मुष्किल होगा, बावजूद इस चुनाव में जातीय राजनीति की शुरुआत भाजपा, कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी जैसे दलों ने विधानसभा क्षेत्रों में जातीय गणित के अनुसार उम्मीदवारों को मैदान में उतारकर की है। साफ है, जातीय कुचक्र का धरातल नीचे से नहीं, बल्कि ऊपर से करने के उपाय किए जा रहे हैं।