सियासत के मंच पर फिल्मी सितारे
April 10, 2024भाजपा ने कंगना राणावत को हिमाचल प्रदेश में मंडी से चुनावी मैदान में क्या उतारा, राजनीति में फिल्मी सितारों की मौजूदगी को लेकर चर्चा तेज हो गयी। वैसे कंगना कोई पहली स्टार नहीं हैं, जिन्हें किसी पार्टी ने उम्मीदवार बनाया है। लोकतांत्रिक समाज में चुनावी मैदान को पूर्णकालिक राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए ही सीमित करना संभव नहीं है, परंतु यह सवाल जरूर उठता रहा है कि चुनाव में सिनेमाई सितारों का उतरना कितना जायज है। इसकी वजह है, राजनीति में उनकी कम सक्रियता। चुनाव जीतने वाला व्यक्ति अपने क्षेत्र की जनता का संसद में प्रतिनिधि होता है। इस नाते उसकी जिम्मेदारी बनती है कि वह अपने क्षेत्र के विकास और भलाई के लिए काम करे, विभिन्न मंचों पर उनकी आवाज बने। राजनीति में सितारों के छाने की प्रक्रिया का विश्लेषण करें, तो दो तरह की प्रवृत्तियां सामने आती हैं।
दक्षिण भारत में फिल्मी दुनिया के सितारे अपने राजनीतिक आसमान के लिए महज चमकते हुए सितारे ही साबित नहीं हुए, बल्कि जमीनी स्तर पर भी उन्होंने खूब प्रभावित किया। तमिलनाडु के दोनों प्रमुख दलों की मुखिया रही शख्सियतें इसका उदाहरण हैं। द्रमुक के प्रमुख रहे एम करुणानिधि तमिल फिल्मों के पटकथाकार रहे थे, लेकिन राजनीति में जब वे आये, तो राजनीति के ही होकर रह गये। देखते ही देखते वे राजनीति का ऐसा चेहरा बन गये, जिनके बिना तमिलनाडु की राजनीति की कल्पना भी नहीं की जा सकती। ऐसी ही स्थिति अन्ना द्रमुक के प्रमुख रहे एमजी रामचंद्रन और जे जयललिता की भी रही। एमजी रामचंद्रन तमिल फिल्मों के सुपर स्टार थे, कुछ ऐसा ही जयललिता के साथ था। लेकिन राजनीति में आने के बाद यह जोड़ी भी राजनीति की ही होकर रह गयी।
आंध्र प्रदेश की राजनीति में ऐसा ही नाम नंदमूरि तारक रामाराव का रहा। अस्सी के दशक में उन्होंने तेलुगू बिड्डा नाम से कांग्रेस विरोधी अभियान शुरू किया और आंध्र के सियासी आसमान पर छा गये। वर्ष 1989 की केंद्रीय राजनीति में भी उनकी बड़ी भूमिका रही। उत्तर भारतीय राजनीति में सिनेमाई हस्तियों के साथ हालात अलग रहे। मुंबइया सिनेमा के हीरो की सिनेमाई पर्दे पर ‘लार्जर दैन लाइफ’ छवि रही, लेकिन राजनीति की पथरीली जमीन पर यह छवि पस्त पड़ती रही। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए 1984 के आम चुनाव में कांग्रेस ने हिंदी सिनेमा की तीन बड़ी शख्सियतों- अमिताभ बच्चन, सुनील दत्त और वैजयंतीमाला बाली- को उम्मीदवार बनाया था, तीनों को जीत भी मिली, लेकिन सिर्फ सुनील दत्त ही मैदान में बने रहे। उनकी राजनीतिक यात्रा 25 मई 2005 को उनके निधन तक जारी रही। पर बोफोर्स मामले में नाम आने के बाद अमिताभ ने राजनीति से तौबा कर ली। वैजयंतीमाला भी बाद में राजनीति से अलग हो गयीं। बाद में हिंदी सिनेमा के दो और नाम आये- कांग्रेस से राजेश खन्ना और भाजपा से शत्रुघ्न सिन्हा. शत्रुघ्न राजनीति में रम पाये, जो अब तृणमूल कांग्रेस के साथ हैं।
सुनील दत्त और शत्रुघ्न सिन्हा की परंपरा में केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी को भी रखा जा सकता है। अब राजनीति ही उनका ओढ़ना-बिछौना है। केंद्रीय मंत्रालयों का जिम्मा संभालने की बात हो या भाजपा का पक्ष रखना हो, दोनों ही भूमिकाओं में वे दूसरे सितारों से कहीं ज्यादा गंभीर हैं। राजनीति में जयाप्रदा और जया बच्चन ने भी समाजवादी पार्टी के जरिये कदम रखा। जयाप्रदा लोकसभा में रहीं, तो जया बच्चन लगातार राज्यसभा में हैं। अरसे से भाजपा में हेमा मालिनी सक्रिय हैं। वे दो बार से मथुरा से सांसद हैं। वे राज्यसभा में भी रह चुकी हैं। उनके पति धर्मेंद्र राजस्थान के बीकानेर से सांसद रहे, तो धर्मेंद्र के बेटे सन्नी देओल पंजाब के गुरदासपुर से, लेकिन दोनों को राजनीति रास नहीं आयी। रामायण सीरियल की लोकप्रियता के दौर में भाजपा ने 1991 में दीपिका चिखलिया और अरविंद त्रिवेदी को गुजरात से मैदान में उतारा। बाद में दोनों ही राजनीति से दूर हो गये। इस बार पार्टी ने राम की भूमिका निभाकर लोकप्रिय हुए अरुण गोविल को मेरठ से उम्मीदवार बनाया है।
विनोद खन्ना पंजाब से सांसद रहे और वाजपेयी सरकार में उन्हें राज्य मंत्री भी बनाया गया था। भाजपा से मनोज तिवारी, दिनेश यादव निरहुआ और रवि किशन जैसे भोजपुरी फिल्मों के अभिनेता सांसद हैं। अभिनेत्री किरण खेर चंडीगढ़ से सांसद हैं। पश्चिम बंगाल से पार्टी रूपा गांगुली को राज्यसभा भेज चुकी है, तो लोकसभा में बांग्ला की अभिनेत्री लॉकेट चटर्जी पार्टी की सांसद हैं। तृणमूल कांग्रेस ने पिछली बार अभिनेत्री मिमी चक्रवर्ती और नुसरत जहां को संसद भेजा था। पहले यहीं से भाजपा ने फिल्मी गायक बाबुल सुप्रियो को संसद भेजा, बाद में वे तृणमूल में शामिल हो गये और अभी राज्य में मंत्री हैं। सियासत की दुनिया में सिनेमाई सितारों की फेहरिस्त लंबी है। पर दक्षिण को छोड़ दें, तो ज्यादातर सितारों का चयन इसलिए नहीं हुआ कि वे राजनीतिक भूमिका निभा पायेंगे, बल्कि उन्हें जिताऊ चेहरे के तौर पर मौका मिला। उनमें से कुछ ही जमीनी स्तर पर राजनीतिक चुनौतियों का सामना कर पाये। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर लोकतंत्र की दुनिया में चमक ज्यादा अहमियत रखती है या लोक के प्रति जवाबदेही।