उत्तर में होलिका दहन तो दक्षिण में कामदहन
March 25, 2024फागुन की पूर्णिमा- होली । रंगों की बहार, उमंग धूम, मस्ती और धमाचौकड़ी । होली का स्मरण आते ही आँखों के सामने रंगो से सरोबार रंगारंग दृश्य साकार हो जाता है -गगन में लच्छेदार उड़ती लाल गुलाल अबीर की धमक , नीली पीली पिचकारियों की रंगीन फुहारें , रंगीन पानी के ग़ुब्बारों को हाथ लिए लिपे पुते चेहरों की उद्दाम टोलियाँ, और साथ साथ …घी की मिठाइयों की मीठी सुगंध से सने बाज़ार, हर तरफ करीने से सजी मिठाइयाँ ! ओह …मनभावन दृश्य ।
और प्रकृति … ? फाल्गुन के मास में वो तो अपने पूरे श्रृंगार पर उतर आती है । बौराई भरी भरी अमराइयाँ ,नीम की लटकती लच्छेदार डालियों पर सजे गुच्छे , नए कोमल हल्के हरे पत्तों से लदे पेड़, पलाश और गुलमोहर की डालियों की लाल
छाया , शिशिर का अवसान और चुपके से ग्रीष्म की हल्की धीमी दस्तक । कहते है मार्च और अक्तूबर के महीने बारहों महीनों में अत्यंत सुखद माने जा सकते है । वातावरण समशीतोष्ण । न अधिक गरमी न ठंड । यह महीना प्रकृति को नए रंग में सजा देता है । पतझड़ के बाद धरती कहीं पीली तो कहीं हरी हो जाती है । यह महीना त्योहारों का भी महीना है , पूजा व्रत उपवास का महीना है , आध्यात्मिक ऊर्जा को ऊर्ध्व क्षितिज पर ले जाने का महीना है । आरंभ की पंचमी को बसंत पंचमी मनाई जाती है जहां विद्या की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती की पूजा का विधान है , चतुर्दशी को महादेव की महारात्रि शिवरात्रि तो वहीं पूर्णिमा को मनाया जाने वाला यह पर्व भी उल्लास व चैतन्यता का प्रतीक माना गया है ।
इस पर्व का प्रथम चरण है-“होलिकादहन”-विष्णु के नरसिंह अवतार से जुड़ी कथा …. हिरण्यकश्यप की बहन होलिका द्वारा षड्यंत्र से प्रह्लाद को मारने के लिए किए गए उपक्रम को असफल कर परित्राणाय साधूनाम “मंत्र को सार्थक करने हेतु भगवान का नरसिंह रूप में अवतरण, अर्थात वरदान तभी फलीभूत होता है जब वह मानव कल्याण का हेतु बनता है । सत् की असत पर विजय …और इसी विजय का समारोह ही है रंगों का पर्व होली । पूरे देश भर में यह पर्व मनाया जाता है पर नाम में थोड़े से अंतर के साथ । उत्तर में होलिका दहन तो दक्षिण में कामदहन “। पूर्व संध्या को होलिका दहन की क्रिया होती है यानि छोटी होली और अगले दिन-रंगोत्सव यानि -बड़ी होली । कुछ प्रदेशों में यह राधा कृष्ण के प्रेम का प्रतीक माना जाता है ।
देखा जाए तो सनातन संस्कृति में हर पर्व लोककल्याणार्थ कुछ अप्रमेय परंपराओं को अपने नेपथ्य में लेकर चलता है जहां मानव कल्याण को दृष्टि में रखकर प्रकृति और पर्यावरण की पूजा का विधान है ।उदाहरण के तौर पर कार्तिक मास में आने वाले श्वास संबंधी रोगों से निजात पाने के लिए तिल के तेल का दिया जलाना एक परंपरा है और यही कार्तिक मास महादेव का प्रिय मास माना जाता है जहां बिल्व के पत्तों से शिवार्चना की जाती है वहीं मार्गशीर्ष मास विष्णु उपासना के लिए उत्तम माना जाता रहा है और इस मास में तुलसी की अर्चना श्रेष्ठ फलदायी होती हैं, वहीं होली में नैसर्गिक फूलो से बने रंगो से खेलना भी एक प्रथा ही है ।और यह भी सच है कि पलाश ,नीम ,गुलमोहर ,बिल्व , तुलसी हल्दी चंदन और मेहंदी के पत्तों को सुखाकर बनाए गए रंग आयुर्वेद के अनुसार हमारी त्वचा और चर्म रोग संबंधी विकारों के निर्मूलन में अत्यंत उपयोगी माने जाते रहे हैं । ध्यातव्य रहे कि शिशिर के तीन मास अत्यंत ठंड के कारण शरीर पूरा दिन लगभग ढका ही रहता है । सूर्य रश्मियों की ऊष्मा के अभाव के कारण त्वचा रूखी सूखी होकर फट सी जाती है , ऊपरी स्तर पर पपड़ी जम जाती हैं, धारियाँ पड़ जाती हैं । मार्च के आरंभ से ही हल्की हल्की गुनगुनी धूप आरामदायक लगती है । यह समय होता है जब त्वचा एकाएक ऋतु परिवर्तन की अभ्यस्त नहीं होती और फोड़े फुंसियाँ चकत्ते निकल जाते है ।नैसर्गिक फूलों का चूर्ण त्वचा की मुलायमता बनाए रखने के लिए काफ़ी उपयोगी हो सकता है । संभवतः होलिका दहन के उपरांत रंगों से खेलने के नेपथ्य में उत्सव मनाने की मंशा के साथ साथ यह विज्ञान भी कारगर रहा हो । क्योंकि देखा जाए तो विंध्य को पार कर दक्षिण की ओर आते ही फाल्गुन पूर्णिमा का यह पर्व एक अलग ही आयाम को लेकर चला है । यहाँ रंगों से खेलने का विधान भले न हो पर यह पर्व एक आध्यात्मिक ऊर्जा को संजोए हुए है । दक्षिण भारत में ठंड इतनी अधिक नहीं पड़ती और तापमान भी इतना नीचे नहीं गिरता । यहाँ फाल्गुन पूनम “कामदहन पूर्णिमा “कहलाई जाती है ।इसके पीछे की कथा का संज्ञान लें । पुराणों में तारकासुर वध हेतु कार्तिकेय के जन्म के संदर्भ में काम देव के दहन की कथा वर्णित है । कामदेव महादेव का ध्यान भंग कर देते हैं महादेव तीसरा नेत्र खोलकर काम का दहन कर देते हैं क्रोध वश । लेकिन शीघ्र अपनी गलती समझ कर काम को पुनः जीवित कर रति को वरदान भी दे देते हैं क्योंकि सनातन संस्कृति में चार पुरुषार्थ ,धर्म ,अर्थ ,काम ,मोक्ष में ‘काम’को भी समान सम्मान दिया गया है क्योंकि सृष्टि का विस्तार काम के बिना असंभव है । लेकिन वहीं पर असंयमित काम को वर्जित भी माना गया है ।तदुपरांत देवों के अनुरोध पर महादेव पार्वती से विवाह रचाते हैं और प्रकारान्तर से कार्तिकेय का जन्म होता है । काम का दहन यानि अनियंत्रित इच्छाओं का दहन । इसी कारण इस पूर्णिमा को तमिलनाडु में संध्या समय अलाव जलाकर पहले कामदहन किया जाता है और फिर कार्तिकेय के मंदिरों मे कांवड सजा कर विशेष पूजा अर्चना संपन्न कराई जाती है । इस पर्व को “पंगुनी उत्तीरम” कहा जाता है । अर्थात् फागुन मास में उत्तरा नक्षत्र में आने वाली पूर्णिमा , जब महादेव ने कामदहन किया था । यहाँ के शैव मंदिरों में शिव पार्वती के साथ साथ कार्तिकेय देवसेना के विवाह का भी भव्य नयनाभिराम आयोजन किया जाता है । विवाहोत्सव के पश्चात उत्सव मूर्तियों की गाजे बाजे मंत्रोच्चारण के साथ गलियों में शोभायात्रा निकाली जाती है । पूरा माहौल भक्ति के रंग में रंग जाता है । देखा जाए तो कर्नाटक ,आन्ध्रप्रदेश तमिलनाडु में कामदहन की ही परंपरा है । हाँ एक अपवाद भी हैं केरल में । केरल की एक जनजाति है “कुडुम्बी”जनजाति , जो मूलतः गोवा के निवासी थे और पुर्तगालियों से आतंकित किए जाने पर शताब्दियों पूर्व इनके पूर्वज समुद्री मार्ग से उत्तरी कर्नाटक और उडुपी के आस पास आकर बस गए और वहाँ से धीरे धीरे यह जनजाति आज केरल के तटीय इलाकों में रच बस गई है । इस जनजाति में फाल्गुन पूर्णिमा को रंगों का पर्व मनाया जाता है जिसे “ मंजल कुली” कहा जाता है । मंजल का शाब्दिक अर्थ है हल्दी और कुली यानि स्नान करना । इस पूर्णिमा पर इस जनजाति के लोग बड़ी सी नाँद में हल्दी के पानी को भरकर एक दूसरे पर छिड़कते हुए यह पर्व मनाते हैं और देवी माँ की उपासनी यह जनजाति माँ से रक्षा की गुहार लगाती हैं ।
विषयांतर होते हुए भी एक तथ्य को उपेक्षित नहीं किया जा सकता है कि होली में रंगों का उत्साह स्वास्थ्य पर भारी नहीं पड़ना चाहिए क्योंकि आजकल अवसरवादी व्यापारिक कौशल ने रंगों में रसायनों का मिश्रण कर स्वास्थ्य की बलि चढ़ा दी है जो घातक परिणाम दे रहा है । हर स्तर पर सजगता आवश्यक है । जैविक नैसर्गिक रंगों की ओर झुकाव स्वागत योग्य है ।
होली हो और ठंडाई न हो – ऐसी कल्पना भी नहीं की जा सकती है । यहाँ उत्तरी भारत में इस दिन भांग पीने की भी परंपरा प्रचलन में है । ध्यातव्य रहे उल्लास उच्छृंखलता का पर्याय न बन जाए । कामदहन का यह पर्व कामुक प्रवृत्तियों को उजागर करने का साधन न बन जाए वरना अनर्थ होने की संभावना बन जाएगी । हर्षोल्लास का यह पर्व अपनी सीमा में ही सार्थक बना रह सकता है ।
उत्तर हो या दक्षिण, पूरब हो या पश्चिम , त्योहार का अर्थ होता है पकवान और चाशनी में डूबी मिठाइयाँ । मिठाई का नाम आते ही मुँह मे पानी भर आया । त्योहारों में इन्हें बनाने का उपक्रम लगभग एक महीने पहले ही आरंभ कर दिया जाता है । तरह तरह की मिठाइयाँ…मावा की गुझिया , बेसन के लड्डू, गोल गोल चक्कर दार जांगरी , कुरकुरी जलेबी , मावा की बर्फी और .,,.बहुत कुछ । रसना तो बोल कर ही तृप्त हो गई । यह त्योहार रंग और पकवानों के साथ पुरानी शत्रुता को विस्मरित कर नई शुरुआत करने का समारोह है । नए संबंधों की नींव डालने का त्योहार है । मिलन का और प्रेम बाँटने का त्योहार है । नई मिठास फैलाने का त्योहार है । जहां प्रेम हो वहाँ भेदभाव का कोई अस्तित्व नहीं । देखा जाए तो हमारी सनातन संस्कृति में हर पर्व हमारी आस्था और भारतीयता को ही प्रतिध्वनित करता है जिसका आधारभूत मंत्र है “वसुधैव कुटुम्बकम “ । जहां क्षमा, त्याग स्नेह,आपसी सहयोग और भाईचारा जैसे संस्कार हो , वहाँ विद्वेष और शत्रुता का अस्तित्व स्वत: ही समाप्त हो जाता है । यह है हमारी विविधता में एकता की शक्ति ।