मिचोंग चक्रवात का तांडव

मिचोंग चक्रवात का तांडव

December 7, 2023 Off By NN Express

मेचोंग चक्रवात आंध्रप्रदेश बापटला जिले और तमिलनाडू के समुद्री तट से 90 से 110 किलोमीटर की हवाओं से टकराया और आगे बढ़ गया। मौसम विभाग द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार ‘लैंडफाल‘ अर्थात तट से टकराने की प्राकृतिक प्रक्रिया के बाद यह कमजोर जरूर पड़ गया, लेकिन एक दर्जन से ज्यादा मौतों और करोड़ों की संपत्ति के विनाश का कारण बन आगे बढ़ गया। आगे बढ़कर यह ओडिषा और पूर्वी तेलंगाना के दक्षिणी जिले में तेज हवाओं, आंधी और भीशण बारिष का पर्याय बन गया। इसकी तीव्रता के चलते करीब दस हजार लोगों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाना पड़ा। नतीजतन आंध्रप्रदेष और तमिलनाडू के कई जिलों में इस तूफान ने भारी तबाही मचाई है। हजारों पेड़ और बिजली के खंबे धराषायी हो गए। भारी बारिष के चलते नदियों, नहरों और तालाबों ने बाढ़ का रूप ले लिया, जिससे हजारों किमी सड़के क्षतिग्रस्त हो गई और हजारों एकड़ खेतों में खड़ी फसलें बर्बाद हो गई। चेन्नई और आसपास के क्षेत्रों में हजारों घरों में पानी भर जाने से लोग फंस गए जिन्हें बचाने के लिए नौकाओ और टेक्टर का इस्तेमाल किया गया। इन राज्यों के स्थानीय प्रषासन ने मौसम विभाग की चेतावनी के चलते तत्काल सैकड़ों पुनर्वास केंद्र स्थापित करके 60,000 से ज्यादा लोगों के ठहरने का प्रबंध किया। 140 रेलें और 40 हवाई उड़ाने तत्काल रद्द कर दी गई। चैन्नई सहित 9 जिलों में 61,666 राहत षिविर बनाए गए है। जिनमें भोजन, दूध और पानी अश्रितों को उपलब्ध कराए जा रहे हैं।   

मौसम विभाग की सटीक भविश्यवाणी और आपदा प्रबंधन के समन्वित प्रयासों के चलते मिचैंग चक्रवात ने बड़े क्षेत्र और बड़ी मात्रा में संपत्ति का तो विनाष किया, लेकिन ज्यादा जनहानि का कारण नहीं बन पाया। पषुओं की भी बहुत कम मौतें हुई। इस परिप्रेक्ष्य में हमारी तमाम एजेंसियों ने आपदा से कुशलतापूर्वक सामना करके एक भरोसेमंद मिसाल पेश की है, जो सराहनीय व अनुकरणीय है। ताकतवर तूफान से बचने के लिए आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, ओडीशा और तेलंगाना को चार दिन पहले से ही सतर्क किया जा रहा था। समाचार पत्रों से लेकर टीवी और सोशल मीडिया इसकी भयावयता लगातार जताते रहे। इस कारण राज्य और केंद्र सरकारों को समन्वय बनाए रखने और राहत दल संभावित संकटग्रस्त इलाकों में पहुंचाने में सुविधा रही। बड़ी संख्या में लोगों को सुरक्षित स्थानों पर चक्रवात आने से पहले ही पहुंचा दिया था। एनडीआरएफ ने राज्य सरकारों से विचार-विमर्ष करके अपने बचाव दल सही समय पर तैनात कर दिए थे। कुदरत के इस कोप से मुकाबला करने की जो तैयारी व जीवटता इस बार देखी गई, इससे पहले बिपरजाॅय तूफान के समय भी देखने में आई थी। 

भारतीय मौसम विभाग के अनुमान अकसर सही साबित नहीं होते, लेकिन कुछ समय से चक्रवाती तूफानों के सिलसिले में की गईं भविष्यवाणीयां सटीक बैठ रही हैं। जबकि मानसून को लेकर उसकी विश्वसनीयता पर सवाल उठते रहते हैं। इस बार हमारे मौसम विज्ञानी सुपर कंप्युटर और डापलर रडार जैसी श्रेष्ठ तकनीक के माध्यमों से चक्रवात के अनुमानित और वास्तविक रास्ते का मानचित्र एवं उसके भिन्न क्षेत्रों में प्रभाव के चित्र बनाने में भी सफल रहे। तूफान की तीव्रता, तेज हवाओं एवं आंधी की गति और बारिष के अनुमान भी कमोबेष सही साबित हुए। इन अनुमानों को और कारगर बनाने की जरुरत है, जिससे बाढ़, सूखे, भूकंप और बवंडरों की पूर्व सूचनाएं मिल सकें और उनसे सामना किया जा सके। साथ ही मौसम विभाग को ऐसी निगरानी प्रणालियां भी विकसित करने की जरुरत है, जिनके मार्फत हर माह और हफ्ते में बरसात होने की राज्य व जिलेबार भविश्यवाणियां की जा सकें। यदि ऐसा मुमकिन हो पाता है तो कृषि का बेहतर नियोजन संभव हो सकेगा ? साथ ही अतिवृष्टि या अनावृष्टि के संभावित परिणामों से कारगर ढंग से निपटा जा सकेगा ? किसान भी बारिश के अनुपात में फसलें बोने लग जाएंगे। लिहाजा कम या ज्यादा बारिश का नुकसान उठाने से किसान मुक्त हो जाएंगे। मौसम संबंधी उपकरणों के गुणवत्ता व दूरंदेशी होने की इसलिए भी जरूरत है, क्योंकि जनसंख्या घनत्व की दृष्टि से समुद्र तटीय इलाकों में आबादी भी ज्यादा है और वे आजीविका के लिए समुद्र पर निर्भर भी हैं। लिहाजा समुद्री तूफानों का सबसे ज्यादा संकट इसी आबादी को झेलना होता है।

कुदरत के रहस्यों की ज्यादातर जानकारी अभी अधूरी है। जाहिर है, चक्रवात जैसी आपदाओं को हम रोक नहीं सकते, लेकिन उनका सामना या उनके असर कम करने की दिषा में बहुत कुछ कर सकते हैं। भारत के तो तमाम इलाके वैसे भी बाढ़, सूखा, भूकंप और तूफानों के लिहाज से बेहद संवेदनषील हैं। जलवायु परिवर्तन और प्रदूशित होते जा रहे पर्यावरण के कारण ये खतरे और इनकी आवृत्ति और बढ़ गई है। कहा भी जा रहा है कि बिपरजाॅय, क्यार, निसर्ग, तौकते, सुनामी, फेलिन, ठाणे, आइला, आईरिन, नीलम और सैंडी जैसी आपदाएं प्रकृति की बजाय आधुनिक मनुश्य और उसकी प्रकृति विरोधी विकास नीति का पर्याय हैं। इस बाबत गौरतलब है कि 2005 में कैटरीना तूफान के समय अमेरिकी मौसम विभाग ने इस प्रकार के प्रलयंकारी समुद्री तूफान 2080 तक आने की आषंका जताई थी, लेकिन वह सैंडी और नीलम तूफानों के रुप में 2012 में ही आ धमके। इयके 10 साल पहले आए सुनामी ने ओड़िषा के तटवर्ती इलाकों में जो कहर बरपा था, उसके विनाष के चिन्ह अभी भी दिखाई दे जाते हैं। इसकी चपेट में आकर करीब 10 हजार लोग मारे गए थे। सुनामी से फूटी तबाही के बाद पर्यावरणविदों ने यह तथ्य रेखांकित किया था कि अगर मैंग्रोव वन बचे रहते तो तबाही कम होती। ओड़िषा के तटवर्ती षहर जगतसिंहपुर में एक औद्योगिक परियोजना खड़ी करने के लिए एक लाख 70 हजार से भी ज्यादा मैंग्रोव वृक्ष काट डाले गए थे। उत्तराखंड में भी पर्यटन विकास के लिए लाखों पेड़ काट दिए और पहाड़ियों की छाती छलनी कर दी गई, जिसके दुश्परिणाम हम उत्तराखंड में निरंतर आ रहीं त्रासदियों में देख रहे हैं। दरअसल जंगल प्राणी जगत के लिए सुरक्षा कवच हैं, इनके विनाष को यदि नीतियों में बदलाव लाकर नहीं रोका गया तो  तय है कि आपदाओं के सिलसिलों को भी रोक पाना मुष्किल होगा ?

दरअसल कार्बन फैलाने वाली विकास नीतियों को बढ़ावा देने के कारण धरती के तापमान में लगातार वृद्धि हो रही है। यही कारण है कि बीते 133 सालों में रिकार्ड किए गए तापमान के जो 13 सबसे गर्म वर्श रहे हैं, वे 2000 के बाद के ही हैं और आपदाओं की आवृत्ति भी इसी कालखण्ड में सबसे ज्यादा बढ़ी हैं। पिछले तीन दषकों में गर्म हवाओं का मिजाज तेजस्वी लपटों में बदला है। इसने धरती के 10 फीसदी हिस्से को अपनी चपेट में ले लिया है। यही वजह है कि अमेरिका में जहां कैटरिना, आइरिन और सैंडी तूफानों ने तबाही मचाई वहीं नीलम, आइला, सुनामी और फेलिन ने भारत व श्रीलंका में हालात बद्तर किए। बताया जा रहा है कि वैष्विक तापवृद्धि के चलते समुद्री तल खौल रहा है। फ्लोरिडा से कनाडा तक फैली अटलांटिक की 800 किमी चैड़ी पट्टी में समुद्री तल का तापमान औसत से तीन डिग्री सेल्सियस अर्थात् 5.4 फाॅरेनहाइट ज्यादा है। यही उर्जा जब सतह से उठ रही भाप के साथ मिलती है तो समुद्री तल में अप्रत्याषित उतार-चढ़ाव षुरु हो जाता है, जो चक्रवाती बवंडर को विकसित करता है। इस बवंडर के वायुमंडल में विलय होने के साथ ही, वायुमंडल की नमी 7 फीसदी बढ़ जाती है, जो तूफानी हवाओं को जन्म देती है। प्राकृतिक तत्वों की यही बेमेले रासायनिक क्रिया भारी बारिष का आधार बनती है, जो आंधी का रूप ले लेती है। नतीजतन तबाही के परचम से धरती कांप उठती है और बस्तियां जलमग्न हो जाती हैं।  

तापमान की इसी वृद्धि का अनुमान लगा लिए जाने के आधार पर अंतर सरकारी पेनल ने भी भारतीय समुद्री इलाकों में चक्रवाती तूफानों की संख्या बढ़ने की आषंका जताई है। इस लिहाज से हमारी संस्थाओं की जो समवेत जवाबदेही, इस चक्रवात से सामना करने में दिखाई दी है, उसकी निरंतरता बनी रहनी चाहिए। मौसम विभाग की भविश्यवाणी के बाद बचाव और राहत की तैयारी के लिए महज चार दिन मिले थे। इन्हीं चार दिनों में केंद्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण सक्रिय हो गया। इसकी हिदायतों के मुताबिक थल, जल और वायु सेनाएं जरुरी संसाधनों के साथ प्रभावित क्षेत्रों में तैनात हो गईं। नतीजतन चक्रवात के प्रभाव में आए राज्यों की सरकारों ने वक्त के तकाजे के हिसाब से बचाव के सभी संसाधन तटवर्ती क्षेत्र में झोंक दिए। मीडिया भी मैदान में तैनात होकर आगे बढ़ते तूफान की सूचनाएं देकर जनता को सुरक्षित स्थलों पर पहुंचने की मुनादी पीटता रहा। इस संकट की घड़ी में जो साझा दायित्व बोध देखने में आया, वह यदि भविश्य में भी बना रहता है तो भारत ऐसी अचानक आने वाली आपदाओं से मानव आबादी को सुरक्षित बनाए रखने में सफल बना रहेगा।