दिल्ली की हवा में घुलता जहर

दिल्ली की हवा में घुलता जहर

November 6, 2022 Off By NN Express

मौसम के करवट लेते ही देश की राजधानी दिल्ली और उसके ईद-गिर्द वायु प्रदूशण लोगों की सांसों पर भारी पड़ने लगता है। केंद्रीय प्रदूशण नियंत्रण बोर्ड के मुताबिक षुक्रवार को वायु गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआई) 447 पर पहुंच गया। जिसे गंभीर एवं खतरनाक श्रेणी में माना जाता है। नतीजतन दिल्ली, नोएडा और गुरुग्राम की वायु में जहर की मात्रा बढ़ गई। अतएव एक्यूआई ने दिल्ली एनसीआर क्षेत्र में डीजल वाहनों पर प्रतिबंध के साथ दिल्ली सरकार ने पांचवी तक की कक्षाएं बंद कर हैं।

सरकारी कार्यालयों में भी कोरोना कालखंड को दोहराते हुए दफ्तरों में 50 प्रतिषत कर्मचारियों को आने की अनुमति दी है। षेश कर्मचारी घर से ही आॅनलाइन काम करेंगे। ऐसा माना जा रहा है कि वायु प्रदूशण दिल्ली, पंजाब, हरियाणा और उत्तरप्रदेष के किसानों द्वारा खेतों में पराली जलाए जाने के कारण जीवन को संकट में डाल देने की हद तक पहुंचा है। प्रदूशण के बढ़ने के साथ केंद्र और दिल्ली सरकार के बीच मतभेद भी उभरकर सामने आने लगे हैं। केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने कहा है कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने पराली गलाने वाला रसायन डी-कांपोजर लेने से मना कर दिया है।

नतीजतन किसान पराली जलाने को मजबूर हो रहे है। फसलों के अवशेष के रूप में निकलने वाली पराली को दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान व पष्चिमी उत्तरप्रदेष में बड़ी मात्रा में जलाई जाती है। नतीजतन दिल्ली की आवोहवा में धुंध छा जाती है। हर साल अक्टूबर-नबंवर माह में फसल कटने के बाद षेश बचे दंठलों को खेतों में ही जलाया जाता है।  इनसे निकलने वाला धुआं वायु को प्रदूशित करता है। सरकारी आंकड़ों से पता चलता है कि देष में हर साल 70 करोड़ टन पराली निकलती है। इसमें से 9 करोड़ टन खेतों में ही छोड़नी पड़ती है।

हालांकि 31 प्रतिशत पराली का उपयोग चारे के रूप में, 19 प्रतिषत जैविक ऊर्जा के रूप में और 15 प्रतिषत खाद बनाने के रूप में इस्तेमाल कर ली जाती है। बावजूद 31 प्रतिषत बची पराली को खेत में ही जलाना पड़ता है। अकेले पंजाब में इस बार 15 लाख मीट्रिक टन पराली खेतों में जलाने की आषंका है। एक हेक्टेयर धान के खेत में औसतन 3 से 5 मीट्रिक टन पराली निकलती है। पंजाब में इस बार 30 लाख 10 हजार हेक्टेयर कृशि भूमि में धान रोपी गई है। फसल आने के बाद इसमें से पांच लाख मीट्रिक  टन पराली का इस्तेमाल चारा, खाद एवं उद्योगों में ईंधन के रूप में हो जाएगा।

उपयोग की जाने वाली पराली की यह मात्रा महज 20 प्रतिषत है, जबकि 80 प्रतिषत पराली का कोई उपयोग नहीं है। इसलिए किसानों के पास इसे सरलता से नश्ट करने का  जलाने के अलावा कोई दूसरा उपाय नहीें है।केंद्र व राज्य सरकारें भी पराली नश्ट करने की सस्ती व सुरक्षित तकनीक ईजाद करने में नाकाम रही है। ऐसी कोई तकनीक नहीं होने के कारण किसान को खेत में ही दंठल जलाने पड़ते है। जलाने की उसे जल्दी इसलिए भी रहती है, क्योंकि खाली हुए खेत में गेहूं और आलू की फसल बोनी होती है। इस लिहाज से जरूरी है कि राज्य सरकारें पराली से जैविक खाद बनाने के संयंत्र जगह-जगह लगाएं और रासायनिक खाद के उपयोग को प्रतिबंधित करें।

हालांकि कृशि वैज्ञानिक पराली को कुतरकर किसानों को जैविक खाद बनाने की सलाह देते हैं, किंतु यह विधि बहुत महंगी है। कर्ज में डूबे देष के किसान से यह उम्मीद करना नाइंसाफी है। हालांकि कुछ छोटे किसान वैकल्पिक तरीका अपनाते हुए धान को काटने से पहले ही आलू जैसी फसलें बो देते हैं। इसका फायदा यह होता है कि पराली स्वाभाविक रूप में जैविक खाद में बदल जाती है।

यह सही है कि पराली जलाने के कई नुकसान हैं। वायु प्रदूशण तो इतना होता है कि दिल्ली भी उसकी चपेट में आ जाती है। अलबत्ता एक एकड़ धान की पराली से जो आठ किलो नाइट्रोजन, पोटाश, सल्फर और करीब 3 किलो फास्फोरस मिलती है, वह पोशक तत्व जलने से नश्ट हो जाते हैं। आग की वजह से धरती का तापमान बढ़ता है। इस कारण खेती के लिए लाभदायी सूक्ष्म जीव भी मर जाते हैं। इस लिहाज से पराली जलाने का सबसे ज्यादा नुकसान किसान को उठाना पड़ता है। अतएव जरूरी है कि पराली के उपयोग के भरपूर उपाय किए जाएं। बावजूद ऐसे कई कारण हैं, जो वायू को प्रदूशित करते है।      

भारत में औद्योगीकरण की रफ्तार भूमण्डलीकरण के बाद तेज हुई है। एक तरफ प्राकृतिक संपदा का दोहन बढ़ा तो दूसरी तरफ औद्योगिक कचरे में बेतहाषा बढ़ोत्तरी हुई। लिहाजा दिल्ली में जब षीत ऋृतु दस्तक देती है  तो वायुमण्डल में आर्द्रता छा जाती है। यह नमी धूल और धुएं के बारीक कणों को वायुमण्डल में विलय होने से रोक देती है। नतीजतन दिल्ली के ऊपर एकाएक कोहरा आच्छादित हो जाता है। वातावरण का यह निर्माण क्यों होता है,  मौसम विज्ञानियों के पास इसका कोई स्पश्ट तार्किक उत्तर नहीं है। वे इसकी तात्कालिक वजह खेतों में जलाए जा रही पराली बता देते हैं।

यदि वास्तव में इसी आग से निकला धुआं दिल्ली में छाए कोहरे का कारण होता तो यह स्थिति चंडीगढ़, अमृतसर, लुधियाना और जालंधर जैसे बड़े षहरों में भी दिखनी चाहिए थी ? लेकिन नहीं दिखती ? अलबत्ता इसकी मुख्य वजह हवा में लगातार प्रदूशक तत्वों का बढ़ना है। दरअसल मौसम गरम होने पर जो धूल और धुंए के कण आसमान में कुछ ऊपर उठ जाते हैं, वे सर्दी बढ़ने के साथ-साथ नीचे खिसक आते हैं। दिल्ली में बढ़ते वाहन और उनके सह उत्पाद प्रदूशित धुआं और सड़क से उड़ती धुल, अंधियारे की इस परत को और गहरा बना देते हैं।

दिल्ली में इस वक्त वायुमंडल में मानक पैमाने से ढाई गुना ज्यादा प्रदूशक तत्वों की संख्या बढ़ गई है। इस वजह से लोगों में गला, फेफड़ें और आंखों की तकलीफ बढ़ जाती हैं। कई लोग मानसिक अवसाद की गिरफ्त में भी आ जाते हैं। दिल्ली एम्स के पूर्व निदेषक रणदीप गुलेरिया का कहना है कि विज्ञान जनरल द लैंसेट और देष में इस विशय पर किए अध्ययन बताते है कि वायु प्रदूशण खराब होने से गर्भवती महिलाओं के सांस लेने का असर भू्रण पर पड़ता है। इससे भू्रण का विकास प्रभावित होता है। गर्भपात का भी खतरा बढ़ जाता है।

इस बड़े प्रदूशण के चलते दिल का दौरा पड़ने और मस्तिश्क में बाधा भी आती हैं। गठिया के मरीजों की परेषानियां बढ़ जाती है। यही वजह है कि बड़े प्रदूशण के बाद अस्पतालों में मरीजों की संख्या बढ़ जाती है।