कहीं ‘ढेलामार’ तो कही ‘बुढ़वा’, चारों ओर दिख रहा होली का रंग
March 21, 2024भारतवर्ष की सरजमीं पर पर्व – त्योहारों की कोई कमी नहीं है । प्रत्येक त्योहार की छटा अलग नजारा पेश करती दिखाई पड़ती है । सबका अपना महत्व और तौर-तरीके भी लोगों को आकर्षित करते रहे हैं। हिंदू पंचांग का हर महीना त्योहारों से सजा हुआ है। बारह माह के सैकड़ों त्योहारों के बीच एक ऐसा पर्व भी है जो सबसे अलग और अनोखा दिखाई पड़ता है। इस पर्व को रंगों का पर्व होली के नाम से जाना जाता है। इसे बसंतोत्सव भी कहा जाता है। रंगों के पर्व होली की तुलना भारतवर्ष तो क्या दुनिया के किसी भी पर्व से कर पाना कठिन है। होली के पर्व में जहां भक्ति के अलग-अलग रंग घुले हुए हैं, वहीं भाई चारे की मिठास कई महीनों तक मुंह में समाई रहती है। देखा जाए तो होली का पर्व सत्य एवं निष्ठा को प्रगाढ़ करने वाला पर्व है। होली का ही पर्व ऐसा है जो आने वाले कुछ दिनों तक अपनी उपस्थिति बनाए रखता है। होली के बाद आने वाली पंचमी “रंग पंचमी” के नाम से जानी जाती है। यह रंग पंचमी देवर-भाभी की अनोखी होली के रूप में हँसी-ठिठोली को समेटे होती है। यह त्योहार ऐसे समय में आता है जब सर्दी लगभग बिदा हो चुकी होती है। साथ ही गर्मी आने को आतुर होती है। ऐसे समय में रंगों की फुहार शरीर और मन दोनों को शीतलता प्रदान करने वाली होती है। होली के रंग में डूबे युवक-युवतियां कुछ इस तरह झूमते नजर आते हैं:-
” गंगा तट पर शिवशंकर , सरयू तट श्री रघुवीर ।
गोपियन संग में होली , खेलें कान्हा जमुना तीर।।
होली एक ऐसा पर्व है जिसका रंग हर प्रदेश में अलग और परंपराओं पर आधारित दिखाई पड़ता है। शौर्य और साहस का प्रदर्शन लिए होली का पर्व अलग ही दृश्य उत्पन्न करता है। हम बात करना चाहते हैं राजस्थान के मेवाड़-वागड़ क्षेत्र की। इस क्षेत्र में होली पर अनोखी परंपराएं निभाई जाती हैं। इन परंपराओं को बेहद ही खतरे से जोड़कर देखा जा सकता है। हालांकि अब समय के साथ इन परंपराओं में कुछ बदलाव हुए हैं। झीलों की नगरी उदयपुर के खैरवाड़ा में आदिवासियों की होली अलग तरह की होती है। खैरवाड़ा में होली का पर्व शौर्य प्रदर्शन का दिन होता है । आदिवासियों के शौर्य प्रदर्शन को देखने राजस्थान ही नहीं , गुजरात , मध्यप्रदेश से भी आदिवासियों की टोली पहुंचती है । आदिवासी इस दिन स्थानीय लोक देवी के स्थानक के समीप होलिका दहन करते हैं । तलवार और बंदूकों के साथ आदिवासी अपनी – अपनी टोली के लिए गीत गाते हुए स्थानक तक पहुंचते हैं । दहकती होली के बीच डंडे को तलवार से काटने की अनोखी रस्म अदायगी होती है ! जो उक्त डंडे को काट देता है उसकी वीरता का सम्मान होता है , लेकिन जो इसमें असफल रहते हैं उन्हें समाज के मुखिया द्वारा तय की गई जुर्माना राशि चुकानी होती है ।
इसी तरह सरगुजा संभाग में रहने वाली पण्डो जनजाति के लोग अपनी बस्ती में होलिका दहन की सुबह तीरंदाजी की प्रतियोगिता आयोजित करते हैं । होलिका दहन वाले स्थान पर एक खंबा गाड़ दिया जाता है , जो होलिका दहन में जल जाता है । जहां खंबा गाड़ा जाता है वहां केवल ठूंठ बचता है । इस ठूंठ पर दो सौ मीटर की दूरी से पण्डो जनजाति के लोग तीर चलाते हैं । तीर सही निशाने पर लगाने वाले व्यक्ति का सम्मान किया जाता है और उसे एक महुआ का पेड़ वर्ष भर के लिए दिया जाता है । अगले वर्ष जब होली पर ऐसी ही प्रतियोगिता होती है , तब जो जीतता है उसे वह पेड़ दे दिया जाता है । इस दौरान महुआ बीनने का अधिकार भी उसी के पास होता है । ऐसी ही प्रतियोगिता पण्डो बाहुल्य हर क्षेत्र में होती है । होली के दिन जल रही होलिका के अंगारों को लेकर पण्डो जनजाति के लोग अपने घर जाते हैं ,और उसी अंगारे को चूल्हे में डालकर आग जलाई जाती है । वे होली की इस आग को पवित्र मानते हैं । ऐसी मान्यता है कि इससे उनकी रसोई के साथ ही घर में पवित्रता बनी रहेगी ।
बिहार प्रदेश में होली एक नए रूप में दिखाई पड़ती है । बिहार में होली के एक दिन बाद ” बुढ़वा होली ” मनाए जाने की परंपरा है । इस दिन लोग होली की मस्ती में मस्त रहते हैं ।एक – दूसरे के घर जाकर फगुआ गीत गाते हैं । औरंगाबाद , गया , जहानाबाद ,नवादा ,अलवर आदि जिलों में बुढ़वा होली मनाए जाने की पुरानी प्रथा आज भी जीवित बताई जाती है । बुढ़वा होली मनाए जाने की परंपरा कब और कैसे शुरू हुई इसका कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं । मान्यता है कि होली के दिन लगभग घरों में कुलदेवता की पूजा होती है । इसी कारण लोगों ने बुढ़वा होली को मान्यता दी । इस दिन गांव की महिलाओं का विशेष नृत्य ( झमटा ) शहर में भ्रमण करता है । इसे कुछ लोग बुजुर्गों के सम्मान से जोड़कर देखते हैं । जानकारों की माने तो मगध के लगभग सभी गांवो – शहरों में बुढ़वा होली मनाई जाती है । वर्तमान में बुढ़वा होली में शुरू हुई गलत परम्परा के कारण सभ्य लोग इससे दूर होते जा रहे हैं ।
होली पर एक अनोखी परंपरा झारखंड में देखने मिलती है । झारखंड के लोहरदगा में ढेलामार होली मनाई जाती है । इस अनोखी परंपरा में गांव के लोग होली के दिन एक – दूसरे को ढेला मारते हैं । विशेष रूप से झारखंड के बरही- चटकीपुर गांव में ढेलामार होली का रोमांच देखा जा सकता है । होली दहन वाले दिन गांव के मैदान में बीचों – बीच एक खूंटा गाड़ दिया जाता है । प्रतियोगिता होती है कि कौन उस खंबे को छूता है या उखाड़ता है । जब कोई खंबे को छूने या उखाड़ने उसकी ओर लपकता है तो उस पर ढेलों की बौछार की जाती है । ढेले की मार सहकर भी जो खूंटा उखाड़ लाता है उसे विजई घोषित किया जाता है । यह मान्यता है कि जो ढेले की मार की परवाह किए बगैर खूंटा उखाड़ लाता है उसके घर सुख – समृद्धि और सौभाग्य बना रहता है । बताया जाता है कि इस तरह की होली का शुभारंभ दामादों के साथ चुहल करने से हुई थी । उस वक्त केवल खूंटा गाड़कर दामादों को उसे उखाड़ने के लिए कहा जाता था। साले-सालियां दामादों पर ढेला बरसाते थे । धीरे-धीरे गांव वाले इसमें भाग लेने लगे और यह परंपरा बन गई।